एक लम्हा है ये ज़िंदगी
आज यहाँ, कल ना जाने कहाँ
रोज़ बिगड़ती काया का
फिर क्यूँ बने पक्का मकाँ
है सबका यहाँ से जाना तय
तो चिंता क्यूँ और किसका भय
चल रही है हवा, न जाने क्या ज़हर है
कब हों रूखसत, किसे पता, ये कैसा क़हर है
आज आदमी की बेहुदी हंसी, चुप है
चुप हैं अरमानों के सपने, कहकहे चुप हैं
चुप हैं शमशान, शादी के मंडप चुप हैं
पता चली है औक़ात, आज ग़ुमान चुप है
वजूद क़ायम रखने कि कोशिश, आज भी है ज़ारी
पर दिनबदिन हौसले पस्त, लग रहा है बोझ भारी
अपने विचारों, आस्थाओं की, उठ गई हैं अस्थियाँ
मैं कौन, क्या मेरा, उठ गईं इस पर उँगलियाँ
नींद थोड़ी टूटी है ज़रूर, पर नशा भी है गहरा
आज भी आस, है वही, रहें मदहोश, बिन पहरा
हमने बिगाड़ी प्रकृति, ये ख़्याल अच्छा है
हर साँस भले मुहताज, पर अभिमान सच्चा है
हमने इसे बिगाड़ा, या बनाया हमें ही, बिगड़ने को है
औक़ात तिनके भर की नहीं, अहं दुनिया भर को है
एक लम्हा है ये ज़िंदगी

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